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दामोदरी

Mahema
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मुंबई में अंधेरी स्थित एक बहुराष्ट्रीय दवा कंपनी में मुझे प्रोडक्षन ऑफीसर की नौकरी मिल गयी | पच्चीस वर्षीय मोहनलाल सक्सेना के लिए यह जीवन का स्वर्णिम दिन था | वाराणसी के पास एक कस्बे-नुमा गाओं से सपनों के शहर बंबई चला तो मेरे साथ था मेरा आशीर्वाद और मेरी एक डिग्री |

सुना था यहाँ कामयाब होने  के लिए लोगों को फुटपाथ पर सोना पड़ता है या स्टेशन पर | पर ईश्वर की कृपा से एक हफ्ते के अंदर मेरे हाथ में अप्पोइन्तमेंट लेटर था और पूना स्थित कंपनी के प्लांट में रिपोर्ट करना था | पूना के बारे में सिर्फ़ इतनी जानकारी थी की वहाँ फिल्म इन्स्टिट्यूट है, जिसके प्रॉडक्ट शबाना आज़मी और नसीरूद्दीन शाह हैं | उन दिनों बंबई शांत और कोलाहल-रहित थी | पूना के रास्ते का रमणीय नज़ारा मनमोहक, आकर्षक लगा | महसूस किया कि अगर बादशाह अकबर कश्मीर जाने से पहले कभी पूना आता तो इस वादी  को ही स्वर्ग कहता |

पूना से पिंपरी प्लांट में ज्वॉइन करते ही कंपनी की ओर से फ्लॅट भी मिल गया | कुछ दिनों बाद शादी शादी भी हो गयी |यहाँ के लोगों की सज्जनता, व्यवहार और प्रेम ने हमें पुनावासी बना दिया | नौकरी, म्कान, धन-दौलत, परिवार; सब कुछ एक को संतुष्ट करने के लिए काफ़ी था | ऐसे ही जीवन की भाग-दौड़ में उम्र पच्चीस से पचपन की हो गयी | कभी-कभी रात के अंधेरे में अतीत मेरी नाज़ुक उंगलियाँ पकड़ मेरे कॉलेज के चौराहे पर छोड़ जाता |

वाराणसी से पाँच किलोमीटर दूर नाथपूर, एक छोटा सा कस्बा था | ऐतिहासिक जगह होने की वजह से पर्यटकों का ताँता लगा रहता | मेरे कॉलेज की चौमुहानी पर चाय-पान की गुमटी लोगों का अड्डा थी | एक सीनियर लोगों का दल था जिसमें टीस से उपर के लोग थे जो शहर के आस-पास नौकरी करते और शाम को चौराहे पर चाय पानी के अलावा दामोदरी सेवन करते | दामोदरी वहाँ के मदीरा का उप-नाम था |

पास के दामोदर-गंज गाओं में बिना रोक-टोक बनाई जाती और वहाँ के दबंग ठाकुर जगदीश सिंह की देखरेख में रातों-रात यह सब जगह पहुँच जाती | दामोदर-गंज से चलते -चलते इसकी बोतलें दामोदरी बन लोगों को आगोश में लेकर मदहोश करती | इस टीम में दीपक, सुधीर, प्यारेलाल, हसन वग़ैरह थे | इनमें सिर्फ़ एक, प्यारेलाल, फुटबाल खिलाड़ी जो सरकारी अधिकारी थे, दामोदरी के चंगुल से दूर थे | जूनियर टीम में पंद्रह से बीस साल के नौजवान कॉलेजों में पढ़ाई करते थे | तपन, श्याम, प्रकाशलाल और जगत यादव मेरे निकट मित्रों में थे | ये लोग सेनीयर टीम के पास इसलिए मंडराते रहते कि शायद बची-खुचि दामोदरी इन्हें मिल जाए |

उन दिनों ब्राह्मण, ठाकुर और यादवों के लड़कों की शादी पंद्रह-सोलह की उम्र में हो जाती और बीस लगते-लगते गौना हो जाता, इसलिए सभी दोस्त बीवी वाले हो चुके थे | मैं, लाला खानदान का छियाग, अपने पैर पर खड़े होने से पहले, घोड़ी चढ़ने के सपने कैसे देखता? उम्र में छोटी होने के बावजूद सबकी बीवियाँ मेरी भाभी थी | इसमें जगत की बीवी रजनी बड़ी ही सुशील और खुश-मिज़ाज थी | जब भी मैं भाभी पुकारता, तुरंत मुझे मज़किया अंदाज़ में जेठ जी संबोधित करती | इस बात पर अक्सर हमारी नौंक-झोंक होती | पर एक बात है; वो खाना बड़ा लज़ीज़ बनाती और अधिकार से खिलाती |

मेरे पूना नौकरी के बाद अन्य भाई भी अलग-अलग शहरों में चले गये और नाथपुरा से संपर्क लगभग टूट गया | रह गयी सिर्फ़ मधुर यादें |

जीवन के इस मोड़ पर बिछड़े साथियों से मिलने का अब मैने पक्का इरादा  कर लिया | जल्द ही एक समारोह में वाराणसी जाने का मौका मिला, समारोह से निपटने के बाद मैं नाथपुरा की ओर चल पड़ा | मान में जोश था की पचपन वर्षीय मोहनलाल को देख कर तपन, श्याम, जगत सभी उछाल पड़ेंगे | उम्र के लिहाज़ से अब मैं रजनी का सचमुच में जेठ बन गया था |

नाथपुरा में अस्सी वर्षीय प्यारेलाल जी से मुलाकात हुई | यहाँ मैं खुशखाबरों की तलाश में इतनी दूर आ गया और वहाँ प्यारेलाल जी से जो सुना वो पूरी तरह अविश्वसनिया और स्तब्ध करने वाला था |

“सभी सीनियर टीम के लोगों में कोई नहीं बचा सिवाय मेरे | दुख की बात तो यह है कि तुम्हारे बचपन के सभी साथी – तपन, श्याम, जगत और प्रकाश को भी दामोदरी निगल गयी | आश्चर्य की बात यह है कि सारे मूह या लिवर के कॅन्सर से काल-कवलित हुए |”

मेरे पूरे शरीर को जैसे भूचाल ने झकझोर दिया | मानो कान फट जाएँगे | उसमें भाभियों का लीप, कुंदन और टूटती चूड़ियों की कसक भर गयी | प्यारेलाल ने ईश्वर का धन्यवाद दिया, जिसने हम दोनों को दामोदरी से बचाया | जगत के घर जाने की हिम्मत तो जवाब दे चुकी थी फिर भी भारी कदमों से उसके घर चल पड़ा | जगत के घर रजनी के सामने मैं स्तब्ध खड़ा था, मानो ज़ुबान तालू से चिपक गयी हो | सामने रजनी थी, एकदम निस्तेज, निर्जीव, आँखों में एक प्रश्न लिए | थोड़ी देर अपने आप को रोकने की नाकाम कोशिश करती रही | आख़िरकार दहाड़ मारकर मेरे कदमों में गिर पड़ी | ये कैसी विडंबना थी कि रिती रिवाजों में जकड़ा मोहन जेठ से मोहन भाई बना और उसके आँखों से आँसू भी नहीं पोंछ सका | रजत के दोनों बेटों को गले लगा कर आंसूओं के सैलाब को बह जाने दिया | सामान्या होने के बाद रजनी ने एक सवाल किया, ” मोहन भाई, आप तो जगत के ख़ास दोस्त थे, खुद बचे रहे, उन्हें दामोदरी के चंगुल से बचने की सलाह क्यों नहीं दी?”

मैं क्या जवाब देता, सिर्फ़ इतना कहा, ” मैंने बहुत कोशिश कि सबको बचाने की | हर बार उस भीड़ में अल्पमत में रह जाता | दामोदरी और दोस्ती की जंग में दामोदरी जीत गयी, दोस्ती हार गयी |”

वापसी में जब नाथपुरा चौमुहानी पर आया तो वहाँ पर कुछ नौजवान और बच्चे अभी भी दामोदरी के  नशे में  लड़खड़ाते मिले | फ़र्क इतना था की ग्राहक और सप्लायर बदल गये थे |

मैं आज भी अल्पमत में था |

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