संस्था के ऑफिस में बैठा कुछ महत्वपूर्ण फाइल को निपटाने की जल्दी में था, पोस्टमॅन द्वारा लाये गये पार्सल पर नज़र पड़ी जो मेरे नाम का था | जिसे किसी अजय चौधरी ने भेजा था | पार्सल खोला तो अजय के पत्र के साथ एक छोटी सी डायरी थी जिसे देखते ही मानस पटल पर यादों की धुंधली परत छतने लगी | अजय ने लिखा था “आप की पचास वर्ष पुरानी अमानत लौटा रहा हूँ, इसे मेरी बहन दिव्या चौधरी ने अपने अंतिम समय में मा को दिया था आप के पास पहुँचान के आग्रह के साथ | बड़ी मुश्किल से आपका पता मिल सका | आशा है अपनी अमानत पाकर खुश होंगे” आपका |.
दिव्या चौधरी का नाम पढ़ आखों के सामने एक पल को अंधेरा छा गया. सोचने समझने की ताक़त विलुप्त हो गयी | पचास साल का अंतराल और दिव्या चौधरी; उसके जन्म दिन पर मैने ये छोटी सी डायरी देने की हिम्मत की थी | डायरी का एक एक पन्ना मुझे पचास साल पीछे धकेल ले गया |
आठवी क्लास का एक मेधावी छात्र प्रभात वर्मा | इलाहवाद के इस को-एडुकेशन कॉलेज में जहाँ छात्राए अपने कामन रूम में ही चहक सकती थी, खिलखिलाने के लिए आज़ाद थी | क्लास में तो सर नीचे किये शरमाते हुये बैठना उनकी नियती थी | किसी लड़के से बात कर लेना उन दिनों बड़ी हिमाकत होती | क्लास में नये इंग्लीश टीचर सुरेश चौधरी की बेटी दिव्या चौधरी एक धमाके के साथ आई | वह एक छात्रा थी जिसने आते ही अपने मेधावीपन का सबूत दे दिया | लड़कों की नाक कटने का सवाल पैदा हो गया और मुझे मैदान में उतारा गया | क्लास की नोकझोक और शरारतों के बीच हम दोनों अंजाने में एक दूसरे के हमदर्द बन गये | न जाने कब वह हम पर पूरी तरह हावी हो गये, स्कूल की वाद-विवाद या खेल-खुद प्रतियोगिता में अगर मेरा दूसरा नंबर आता तो लंबी चौड़ी नसीहत और गुस्से का सामना करना पड़ता | और पहला नंबर आने पर इनामों की खुद हकदार बन जाती, उसकी आखों में अजीब चमक दिखती | उस वक़्त तक हम प्यार, मोहब्बत नहीं जानते थे | लेकिन दसवीं तक पहुँचते-पहुँचते मुझे सिर्फ़ उसकी एक झलक पाने की आदत पड़ गयी थी | उसके बगैर सब कुछ खाली-खाली लगता | उसकी एक बात मेरे पल्ले नहीँ पड़ते थी, जब भी नाराज़ होती अक्सर कहती “तुम्हारी वजह से मेरी मौत होगी, मेरे ना रहने पर मेरे अहमियत मालूम होगी” |
समय गुज़रता रहा, दसवीं परीक्षा क बाद उसके पिता स्कूल छोड़ कर वहाँ से दस किलोमितर दूर दूसरे कॉलेज में चके गये | दिव्या का साथ शायद यहीं तक लिखा था | हम दोनो मेरिट में आए, संजोग देखीये मेरा अंक दिव्या से सिर्फ़ एक ज़यादा आया | ग्यारहवी में मैंने अपने पुराने कॉलेज में ही एडमीशन लिया लेकिन अब वह साथ नहीं थी | क्लास के गलियारे में, रास्ते में, कामन रूम के गेट पर उसकी मौजूदगी का एहसास होता और कभी-कभी तो ऐसा महसूस होता मानो वह मेरे पास खड़ी है | उसके बगैर भी दो साल बीत गये | इंटर परीक्षा के बाद एक दिन समाचार मिला की वह दुनिया छोड़कर चली गई |
उसके नीधन पर में खुलकर रो भी नही सकता था | दोस्तो ने उसकी याद के गम को बचपन की नादानी बताई | जीवन का सफ़र हौले-हौले चलता रहा, उसका ख़ालीपन, नसीहत, अपनापन दिल के कोने में हमेशा दस्तक देता रहा | पढ़ाई पूरी की, अच्छी नौकरी मीली, शादी हुई, बाल बच्चे हुये, उन्हें अच्छी शिक्षा दिलाई | नौकरी से अवकाश लेने तक लड़का डॉक्टर बन गया और लड़की एमबीए कर नौकरी कर रही थी | ज़िम्मेदारियों से मुक्त होकर एक सामाजिक संस्था से जुड़ गया हू | बड़ी बेसब्री और काँपते हाथों से डायरी का पन्ना उलटने लगा, न जाने क्या लिखा होगा? पूरी डायरी में सिर्फ़ आखरी पन्ने पर लिखा था.
‘तुम्हारी जीत मेरी जीत है, मेरे बगैर खुश रहने की आदत दालो | अच्छे इंसान हो, आगे भी बने रहना | शादी ज़रूर करना, बेटी-बेटा को अच्छी शिक्षा देना | तुम मेरे कौन हो, बता नही सकती’ | डायरी के एक-एक शब्द मानो दिव्या मेरे कानो में फुसफुसा रही हो | उस रात डायरी को हाथ में थामे आसमान के एक अडिग तारे को साक्षी मान अनायास पुकार उठा |
‘दिव्या तुम ने जैसा सोचा था वैसा बनने की कोशिश की, अब फ़ैसला तुम्हारे हाथ है, सुन रही हो दिव्या!’ एक तेज हवा का झोका आया मानो चिरपरीचीत मुस्कान बीखेरती दिव्या अपने आचल से सहला रही है | आज मैने पचास सालो से बाँधे हुये आसुओ के सैलाब को खुला छोड़ दिया |
संस्था के ऑफिस में बैठा कुछ महत्वपूर्ण फाइल को निपटाने की जल्दी में था, पोस्टमॅन द्वारा लाये गये पार्सल पर नज़र पड़ी जो मेरे नाम का था | जिसे किसी अजय चौधरी ने भेजा था | पार्सल खोला तो अजय के पत्र के साथ एक छोटी सी डायरी थी जिसे देखते ही मानस पटल पर यादों की धुंधली परत छतने लगी | अजय ने लिखा था “आप की पचास वर्ष पुरानी अमानत लौटा रहा हूँ, इसे मेरी बहन दिव्या चौधरी ने अपने अंतिम समय में मा को दिया था आप के पास पहुँचान के आग्रह के साथ | बड़ी मुश्किल से आपका पता मिल सका | आशा है अपनी अमानत पाकर खुश होंगे” आपका |.
दिव्या चौधरी का नाम पढ़ आखों के सामने एक पल को अंधेरा छा गया. सोचने समझने की ताक़त विलुप्त हो गयी | पचास साल का अंतराल और दिव्या चौधरी; उसके जन्म दिन पर मैने ये छोटी सी डायरी देने की हिम्मत की थी | डायरी का एक एक पन्ना मुझे पचास साल पीछे धकेल ले गया |
आठवी क्लास का एक मेधावी छात्र प्रभात वर्मा | इलाहवाद के इस को-एडुकेशन कॉलेज में जहाँ छात्राए अपने कामन रूम में ही चहक सकती थी, खिलखिलाने के लिए आज़ाद थी | क्लास में तो सर नीचे किये शरमाते हुये बैठना उनकी नियती थी | किसी लड़के से बात कर लेना उन दिनों बड़ी हिमाकत होती | क्लास में नये इंग्लीश टीचर सुरेश चौधरी की बेटी दिव्या चौधरी एक धमाके के साथ आई | वह एक छात्रा थी जिसने आते ही अपने मेधावीपन का सबूत दे दिया | लड़कों की नाक कटने का सवाल पैदा हो गया और मुझे मैदान में उतारा गया | क्लास की नोकझोक और शरारतों के बीच हम दोनों अंजाने में एक दूसरे के हमदर्द बन गये | न जाने कब वह हम पर पूरी तरह हावी हो गये, स्कूल की वाद-विवाद या खेल-खुद प्रतियोगिता में अगर मेरा दूसरा नंबर आता तो लंबी चौड़ी नसीहत और गुस्से का सामना करना पड़ता | और पहला नंबर आने पर इनामों की खुद हकदार बन जाती, उसकी आखों में अजीब चमक दिखती | उस वक़्त तक हम प्यार, मोहब्बत नहीं जानते थे | लेकिन दसवीं तक पहुँचते-पहुँचते मुझे सिर्फ़ उसकी एक झलक पाने की आदत पड़ गयी थी | उसके बगैर सब कुछ खाली-खाली लगता | उसकी एक बात मेरे पल्ले नहीँ पड़ते थी, जब भी नाराज़ होती अक्सर कहती “तुम्हारी वजह से मेरी मौत होगी, मेरे ना रहने पर मेरे अहमियत मालूम होगी” |
समय गुज़रता रहा, दसवीं परीक्षा क बाद उसके पिता स्कूल छोड़ कर वहाँ से दस किलोमितर दूर दूसरे कॉलेज में चके गये | दिव्या का साथ शायद यहीं तक लिखा था | हम दोनो मेरिट में आए, संजोग देखीये मेरा अंक दिव्या से सिर्फ़ एक ज़यादा आया | ग्यारहवी में मैंने अपने पुराने कॉलेज में ही एडमीशन लिया लेकिन अब वह साथ नहीं थी | क्लास के गलियारे में, रास्ते में, कामन रूम के गेट पर उसकी मौजूदगी का एहसास होता और कभी-कभी तो ऐसा महसूस होता मानो वह मेरे पास खड़ी है | उसके बगैर भी दो साल बीत गये | इंटर परीक्षा के बाद एक दिन समाचार मिला की वह दुनिया छोड़कर चली गई |
उसके नीधन पर में खुलकर रो भी नही सकता था | दोस्तो ने उसकी याद के गम को बचपन की नादानी बताई | जीवन का सफ़र हौले-हौले चलता रहा, उसका ख़ालीपन, नसीहत, अपनापन दिल के कोने में हमेशा दस्तक देता रहा | पढ़ाई पूरी की, अच्छी नौकरी मीली, शादी हुई, बाल बच्चे हुये, उन्हें अच्छी शिक्षा दिलाई | नौकरी से अवकाश लेने तक लड़का डॉक्टर बन गया और लड़की एमबीए कर नौकरी कर रही थी | ज़िम्मेदारियों से मुक्त होकर एक सामाजिक संस्था से जुड़ गया हू | बड़ी बेसब्री और काँपते हाथों से डायरी का पन्ना उलटने लगा, न जाने क्या लिखा होगा? पूरी डायरी में सिर्फ़ आखरी पन्ने पर लिखा था.
‘तुम्हारी जीत मेरी जीत है, मेरे बगैर खुश रहने की आदत दालो | अच्छे इंसान हो, आगे भी बने रहना | शादी ज़रूर करना, बेटी-बेटा को अच्छी शिक्षा देना | तुम मेरे कौन हो, बता नही सकती’ | डायरी के एक-एक शब्द मानो दिव्या मेरे कानो में फुसफुसा रही हो | उस रात डायरी को हाथ में थामे आसमान के एक अडिग तारे को साक्षी मान अनायास पुकार उठा |
‘दिव्या तुम ने जैसा सोचा था वैसा बनने की कोशिश की, अब फ़ैसला तुम्हारे हाथ है, सुन रही हो दिव्या!’ एक तेज हवा का झोका आया मानो चिरपरीचीत मुस्कान बीखेरती दिव्या अपने आचल से सहला रही है | आज मैने पचास सालो से बाँधे हुये आसुओ के सैलाब को खुला छोड़ दिया |
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